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मोदी सरकार को बढ़ती असमानता से गुरेज नहीं

  • एन. के. सिंह

जहाँ अधिकांश जाने-माने अर्थ-शास्त्री चीख-चीख कर कह रहे हैं कि बढ़ती आर्थिक असमानता जो कोरोना के कारण एक बड़ी खाई बन गयी है, न रोकी गयी तो अगले दस साल में गरीबी भयंकर रूप से बढ़ेगी। लेकिन मोदी सरकार इससे उलट राय रखती है। उसके अनुसार असमानता और गरीबी का कोई अपरिहार्य समानुपातिक रिश्ता नहीं है। बल्कि सरकार की सोच के अनुसार कई बार असमानता बढ़ने से गरीबी कम होने के लक्षण भी दिखाई देते हैं याने असमानता गरीबी कम करने में लुब्रिकेंट का काम करती है।   

लिहाजा अगर आप यह जानना चाहते हैं कि तमाम राजस्व संकट, मुंह बाये खड़ी स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे मूल-भूत जरूरतों सहित विकास के लिए पैसों की किल्लत और दर्जनों बड़े अर्थशास्त्रियों की सलाह के बावजूद मोदी सरकार ने इस वर्ष के बजट में “सुपर रिच” (अति-धनाढ्य) पर कोविड सेस या सरचार्ज क्यों नहीं लगाया या उपरी आयकर स्लैब में आने वालों का टैक्स दर क्यों नहीं बढ़ाया तो आपको बजट प्रस्तुत करने के तीन दिन पूर्व संसद में प्रस्तुत किये गए आर्थिक सर्वेक्षण खंड-१ के “असमानता और विकास: संघर्ष और अभिसरण (मिलाप) शीर्षक अध्याय चार को पढ़ना होगा। तर्कशास्त्र के मशहूर तर्क-दोष “चुनिन्दा तथ्यों (यहाँ शोधकर्ताओं की रिपोर्ट्स) के सहारे अपने मुताबिक निष्कर्ष हासिल करना) का इस्तेमाल करते हुए सरकार ने यह साबित करने की कोशिश की है कि असमानता और गरीबी में कोई अपरिहार्य समानुपातिक सम्बन्ध नहीं होता बल्कि कई बार सीमित असमानता गरीबी उन्मूलन की रफ़्तार तेज करती है। इस अध्याय में यह भी वकालत है कि सरकार को अर्थ-व्यवस्था की साइज बढाने और गरीबों की बुनियादी जरूरतों को मुहैय्या कराने को वरीयता देनी चाहिए, न पूँजी के औचित्यपूर्ण वितरण को।

और सरकार की ऐसी सोच का यह आलम तब है जब उसी दौरान ऑक्सफाम ने बढ़ती असमानता की गंभीरता पर अपनी रिपोर्ट जारी की। कोरोना काल में जहां एक ओर देश के करीब १२ करोड़ लोग रोजी से महरूम हुए थे वहीँ देश के सबसे बड़े उद्योगपति अम्बानी की संपत्ति हर घंटे ९० करोड़ रुपये की दर से बढ़ रही थी जबकि लॉकडाउन में उत्पादन ठप्प था। ऑक्सफाम रिपोर्ट के अनुसार इस दौरान अम्बानी की संपत्ति दूनी हो गयी और वह दुनिया के सबसे अमीर व्यक्तियों की लिस्ट में २१ वें खाने से कूद कर छठें पर पहुँच गए। दुनिया में कोरोना से जो लोग गरीबी की गर्त में गिरे उनमें आधे से ज्यादा भारत के हैं। रिपोर्ट ने  विश्व मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशक को उधृत करते हुए  कहा “कोरोना-उत्तर असमानता का दूरगामी और खतरनाक प्रभाव दशकों तक नीचे के तबके पर दिखेगा जो सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल का आगाज करेगा। साथ हीं ऑक्सफाम के अनुसार अगर दुनिया के देश इस बढ़ती असमानता (जिन्नी कोफिसेंट के अनुसार) को दो प्रतिशत पॉइंट कम कर सकें तो गरीबों की संख्या एक दशक में आशातीत रूप से कम होगी लेकिन अगर यह दो प्रतिशत पॉइंट बढ़ता है तो १०० करोड़ लोग अतिरिक्त लोग गरीबी की गर्त में गिर जायेंगें। इसके अनुसार भारत में असमानता आजादी के बाद कम हुई लेकिन पिछले कुछ दशकों से बढ़ते हुए यह फिर से औपनिवेशिक काल की असमानता के बराबर हो गयी है। दोनों विश्व युद्धों के पहले अमीर देशों में यह असमानता अपनी चरम पर थी याने इतिहास गवाह है कि जब-जब असमानता सीमा पार की तो अशांति बढीं।    

सरकार का तर्क

हालांकि आर्थिक सर्वेक्षण के अध्याय चार की विषय-परिचय में सरकार ने साफ़ किया है कि पूँजी के औचित्यपूर्ण पुनर्वितरण से उसे कोई गुरेज नहीं है लेकिन यह तभी संभव है जब अर्थ-व्यवस्था का आकर बढे याने जीडीपी बढे। सरकार यह तर्क देते हुए भूल गयी कि भारत जीडीपी के पैमाने पर पिछले कुछ दशकों में २५ वें स्थान से पांचवें स्थान पर आ गया लेकिन मानव विकास सूचकांक में इन ३० वर्षों में दुनिया में १३० और १३५ के बीच हीं लटका रहा। तमाम स्केंडेनेवियन देश मानव विकास सूचकांक पर शीर्ष पर हैं जबकि भारत के मुकाबले उनका जीडीपी उसी अनुपात में नहीं बढ़ा है। सरकार ने ईमानदारी से “विलकिंसन और पिकेट” और “एटकिन्सन और पिकेटी” के शोध निष्कर्षों को उधृत करते हुए कहा कि इनके अनुसार बढ़ती असमानता गंभीर सामाजिक-आर्थिक परिणामों को जन्म देती है और जीडीपी (इकनोमिक पाई) के बढ़ने से गरीबी कम करने का कोई सम्बन्ध नहीं है। दोनों विश्व युद्धों के पूर्व संपन्न अमरीका और यूरोप में असमानता अपनी चरम पर थी। लेकिन इसके बाद आर्थिक सर्वे मानता है कि उपरोक्त अवधारणा भारत जैसे विकासशील देश के लिए सही नहीं होगी। सरकार की इस रिपोर्ट ने अपनी बात ठहराने के लिए गरीबी को भी दो किस्मों में बांटा है —- निरपेक्ष गरीबी और सापेक्ष गरीबी। सरकार का मानना है कि अम्बानी (याने कॉर्पोरेट घरानों) पर टैक्स लगाकर उस पैसे से गरीबों की स्थिति बेहतर करने की जगह सरकार को विकास के पहले दौर में गरीबों की निरपेक्ष गरीबी जैसे मौलिक सुविधाओं का अभाव ख़त्म करना होगा। उसके अनुसार सापेक्ष गरीबी (जो शुद्ध रूप से असामनता-जनित होती है) तो अमरीका में भी है।

ऑक्सफाम की इस “असमानता वायरस, २०२०” शीर्षक रिपोर्ट के अनुसार इस  कोरोना काल में अमरीका, चीन, जर्मनी, रूस और फ़्रांस के बाद भारत में असमानता सबसे ज्यादा बढ़ी है। लॉकडाउन के दौरान भारत के १०० अरबपतियों की संपत्ति ३५ प्रतिशत बढ़ गयी या यूं कहें कि इस बढ़ी संपत्ति से ये १०० कॉर्पोरेट घराने देश के कुल १३. ८ करोड़ सर्वाधिक गरीब लोगों में से हर एक को ९४,०,४५ रुपये का चेक दे सकते थे। याने अगर इस काल में बढीं इनकी १२.९७ लाख करोड़ की संपत्ति पर अगर १० प्रतिशत का “सुपर रिच सेस” लगता तो १.३० लाख करोड की अतिरिक्त आय हो सकती थी। अगर ५० लाख की आय वाले वर्ग के लिए एक स्लैब सुर बनाकर उन पर पर भी पांच प्रतिशत कोविड सरचार्ज लगता तो शायद इतनी हीं राशि और आ जाती। लेकिन तब सेंसेक्स आसमान पर न भागता, ना हीं कई दिन तक वहीँ ठहरता। शायद मार्किट सेंटिमेंट उन करोड़ों बेरोजगार युवाओं के आंसुओं से ज्यादा ताकतवर निकले।

आने वाले इकनोमिक मॉडल में अम्बानी भी बढेंगें और गरीबी भी लेकिन सरकार पूर्व की सरकारों की तरह हीं निरपेक्ष गरीबी याने “रोटी, कपड़ा और मकान” देती रहेगी जैसा आजादी के बाद से हर सरकार ने “देने का वादा किया”। शायद सरकार को अहसास था कि यह रास्ता उसे अलोकप्रिय कर सकता है इसलिए सर्वे के इस खंड के अंत में एक अध्याय “मात्र मूलभूत जरूरियात” को समर्पित किया है और एक नया पैरामीटर २६ गुणकों के आधार पर बनाया है। सर्वे १९८९ में बनी “मैं आज़ाद हूँ” फिल्म में अमिताभ बच्चन का डायलाग उधृत करता है “४० बरस में आप एक इंसान को एक गिलास पानी नहीं दे सके तो आप क्या कर सकते हैं”। शायद मोदी सरकार अब यह एक गिलास पानी देने की योजना पर काम करेगी। डर यह है कि वह गिलास भी कोई अम्बानी बनाएगा और अगर पानी शुद्ध करना है तो वाटर प्युरिफायर भी कोई अडानी। ५०० साल में मुग़लेआज़म का डायलाग “अगर ऐसा ना हुआ तो सलीम तुझे मरने नहीं देगा और हम, अनारकली, तुझे जीने नहीं देंगें” प्रजातन्त्र के दौर में बस इतना हीं बदला कि माबदौलत और शाहजादा सलीम का रिश्ता वही रहा, अनारकली का संकट भी उतना हीं रहा, बस रोल रिवर्सल हो गया।

एन. के. सिंह, देश के जाने माने पत्रकार हैं। विभिन्न समाचरपत्रों और टीवी चैनलों में चार दशकों तक महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रहने के बाद अब वह सामजिक-राजनैतिक चिंतक के रुप में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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