डॉ. रवीन्द्र कुमार
अब वक्त आ गया है कि आधी आबादी यानि महिलाओं को सामाजिक आर्थिक समान अवसर के साथ राजनीति में भी पूरा सम्मानजनक स्थान मिले हैं। आवश्यकता तो सामाजिक और सांस्कृतिक नजरिये के बदलाव की है, जो सरकारी दस्तावेजों में दर्ज योजनाओं और कार्यों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इसके लिए किसी भी बात से यह अधिक जरूरी है कि हमारे समाज में वैचारिक क्रांति हो। नारी जागृति के लिए सर्वमान्य और सर्वग्राही नीतिगत आधार की संरचना हो। समाज में नारी के प्रति संवेदनशीलता विकसित करने की है, जो सिर्फ माता का महिमामण्डन करने से संभव नहीं होगा। इसके लिए हमें अपने संपूर्ण परिवेश पर ईमानदारी से सोचना होगा।
कोई भी सरकार चाहे विकास की कितनी भी बातें क्यों न करे, भारत का विकास तब तक संभव नही है जब तक इस देश की आधी आबादी यानि महिलाओं को समाज में बराबरी का स्थान नहीं मिलता। वास्तव में देश का भविष्य महिलाओं के भविष्य से जुड़ा है। परम्परागत बंधनों से महिलाओं की मुक्ति ही देश को अपराध, गरीबी, पिछड़ापन, अशिक्षा, बीमारी और नकारात्मक सोच के चक्रव्यूह से बाहर निकाल सकती है।
समस्या केवल महिलाओं की आर्थिक भिन्नताओं को दूर करके उनके जीवनयापन को बेहतर करना ही नही है। सच तो यह है कि ठाठबाट का जीवन जी रहीं बड़े घरों की महिलाएं और भी अधिक बंधनों में जीतीं हैं। आवश्यकता तो सामाजिक और सांस्कृतिक नजरिये के बदलाव की है, जो सरकारी आंकड़ों, योजनाओं और कार्यों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। इसके लिए किसी भी बात से यह अधिक जरूरी है कि हमारे समाज में वैचारिक क्रांति हो। इसके लिए पत्रकारिता से अच्छा और कोई माध्यम नहीं हो सकता। मूल प्रश्न यह है कि यह सब किया कैसे जाए, उसके क्या-क्या आयाम हो, उसके लिए कैसा साहित्य सृजन हो और उसके लिए किस विधा की पत्रकारिता हो।
शायद इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कि नारी जागृति के लिए सर्वमान्य और सर्वग्राही सैद्धांतिक आधार की संरचना। नयी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के लिए इसमें नयी सोच और नये मानकों की आवश्यकता है। इसके लिए हमें अपने पूर्वाग्रहों से मुक्ति की आवश्यकता है। सदियों के सामंतवादी वैचारिक दमन ने हमारी सृजनात्मक वृति को दबाकर हमें संवेदनशून्य बना दिया। सबसे बड़ी आवश्यकता समाज में नारी के प्रति संवेदनशीलता विकसित करने की है, जो सिर्फ माता का महिमामण्डन करने से संभव नहीं होगा। इसके लिए हमें अपने संपूर्ण परिवेश पर बौद्धिक ईमानदारी से सोचना होगा। पुरातन भारतीय संस्कृति में महिलाओं के आदर और उच्च स्थान की बात अक्सर कही जाती है जो कि गलत है। आर्य सुरा–सुन्दरी के सेवनकर्ता थे और अप्सराएं रखते थे। समस्त हिन्दू धर्मगुरु जारकर्म को पुण्यकर्म घोषित करते हैं। संतान पैदा करने के लिए जारकर्म को नियोग विधि का रूप दिया गया। आर्य राजाओं ने परस्त्रीगमन को धर्मसंगत बताकर वृंदा, अहिल्या, मन्दोदरी, कुन्ती सहित अनेक स्त्रियों के चरित्र से खिलवाड़ किया। इन कार्यों को सनातन धर्म का अंग बताया गया और जब अनार्यों ने उसके विरुद्ध महिषासुर, बलि, रावण, हिरण्यकश्यप आदि के रूप में संघर्ष किया तो इन्हें छल और अनैतिक रूप से मार डाला गया।
कोलकता में दुर्गा प्रतिमा बनाने वाले कारीगर वेश्यालय से थोड़ी मिट्टी अवश्य लाते हैं। इस प्रक्रिया का चित्रण ‘देवदास’ डा. रवीन्द्र कुमार फिल्म में भी मिलता है। वेश्याएं दुर्गा को अपनी कुलदेवी मानती हैं इसलिए दुर्गा प्रतिमा बनाने के लिए वेश्यालयों से मिट्टी लाने का प्रचलन है। ये लोग दुर्गा को ‘अभिरा’ नाम की मूल घुमंतू जनजाति की देवी मानते हैं। दक्षिण भारत में जनजातियों की सुन्दर कन्याओं का देव-पुजारी लोग देवदासी के रूप में उपयोग करते थे और इन देवदासियों से उत्पन्न सन्तानों को हरिजन (हरि से उत्पन्न) कहा जाता था। परशुराम द्वारा पिता के कहने पर माता रेणुका की हत्या, द्रौपदी का भरे दरबार में चीरहरण, सूर्पणखा की नाक काटना और उस कार्य को उत्सव की तरह मनाना, सीताहरण, सीता की अग्निपरीक्षा, देवकी को गर्भास्था में जेल में डाल देना, प्रहलाद के वध के लिए होलिका को जला देना, अम्बा, अम्बालिका और अम्बिका का अपहरण करके उन्हें सन्तान उत्पन्न करने के लिए पर पुरुषों से सहवास के लिए बाध्य करना, उर्मिला की आकांक्षाओं की उपेक्षा करके उसको एकांकी जीवन काटने के लिए मजबूर करना आदि तमाम ऐसे वृतांत हैं जो यह बताते हैं कि महिलाओं के पुरातन समाज के उच्च और प्रतिष्ठित स्थान की बात सरासर झूठी है। इसलिए आवश्यकता है नये चिन्तन, नये विचार और नये दृष्टिकोण की। आइये हम सब इसके लिए प्रयास करें।
डॉ. रवीन्द्र कुमार, सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ संघर्षरत तथा एक चिकित्सक हैं।