- निभा सिन्हा व अर्चना कुमारी
देश में आजादी के बाद से नीति निर्माताओं ने मुख्यधारा की मीडिया, से महिलाओं के विकास में योगदान की बात कही लेकिन रेडियो, टेलीविजन, और समाचार पत्रों ने यथास्थिति बनाए रखा। महिलाओं की सामाजिक स्थिति में बहुत सकारात्मक परिणाम नहीं दिखा। रेडियो, टेलीविजन एवं समाचारपत्रों में बलात्कार, घरेलू हिंसा और दहेज हत्या के अलावा महिला विकास के मुद्दों को बहुत ज्यादा महत्व नहीं मिला। धीरे धीरे महिला संबंधी पत्रिकाओं ने पहल तो की लेकिन सवाल यह है कि क्या महिला पत्रिकाएं महिला मुद्दों पर सार्थक काम कर रहीं है? अपने लेखन के जरिये महिलाओं की समस्याओं का हल कर उनका विकास करने और उन्हें सशक्त बनाने में अपनी भूमिका निभाने में कितनी सफल हैं? पांच प्रमुख हिंदी भाषी महिला विषयक पत्रिकाओं का गुणात्मक विश्लेषण..
भूमिका
जहां एक ओर पत्रकारिता स्वयं ही महिलाओं के लिए एक चुनौतीपूर्ण क्षेत्र रहा है, वहीं दूसरी ओर महिलाओं की आवाज लोगों तक पहुंचाने का एकमात्र माध्यम भी यही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तब तक अधूरी है जब तक गरीबों, पिछड़ों और महिलाओं की जरूरतों को आवाज न मिले। संयुक्त राष्ट्र संघ की वर्ष 2000 में विशेषज्ञों की एक बैठक में इस बात को प्रमुखता दी गई कि महिलाओं की स्थिति और मीडिया की स्थिति ही किसी भी प्रजातांत्रिक समाज के विकास की कसौटी है। भारत में पत्रकारिता हमेशा से पुरुषों का क्षेत्र माना जाता रहा हैं। अस्सी के दशक तक बहुत ही कम महिलाएं पत्रकारिता के क्षेत्र में काम कर रही थी। आज स्थिति में भी बदलाव आया है। एशिया पेसिफिक क्षेत्र में कुल मीडियाकर्मियों में लगभग 28.6 पतिशत ही महिलाएं काम करती हैं। हालांकि निर्णायक भूमिका में केवल 17.9 प्रतिशत महिलाएं ही हैं और संपादकीय भूमिका में केवल 19.5 प्रतिशत महिलाएं हैं। ऐसी स्थिति में महिलाओं की समस्याओं, जरूरतों, उनके विकास और सशक्तिकरण के मुद्दे पर मीडिया में अहमियत दिया जाना अनिवार्य है। ऐसे में महिला विशेष पत्रिकाओं की भूमिका काफी हुत महत्वपूर्ण हो जाती है। इन पत्रिकाओं का सकारात्मक पहलू यह है कि यह महिलाओं से जुड़ी छोटी से छोटी समस्याओं को नी अहमियत देकर उनका समाधान ढूंढने की कोशिश करती है। इन पत्रिकाओं में काम करने वाली ज्यादातर संपादक और अन्य त्रकार भी महिलाएं है। ये महिलाओं को समस्याओं को समझने और उन्हें सुलझाने के लिए जो दृष्टिकोण अपनाती हैं वह ज्यादा व्यावहारिक होता हैं। इसी तथ्य के आधार पर इस अध्ययन में यह जानने की कोशिश की गई है कि ये महिला पत्रिकाएं वास्तव में किस तरह और कितना सार्थक विषय वस्तु अपने महिला पाठकों को उपलब्ध करा रही है और वह पाठकों के लिए कितना कारगर साबित हो रहा है।
साहित्यिक समीक्षा
“बीस वर्ष पूर्व पहली बार लिंग समानता और महिलाओं के सशक्तिकरण में मीडिया की अहम भूमिका को बीजिंग डिक्लेरेशन एंड प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन 1995 में रेखांकित किया गया था।”
– किम, 2015
“आज बीस वर्ष बाद भी विश्व स्तर पर केवल 27 प्रतिशत महिलाएं मीडिया में उच्च पदों पर कार्यरत हैं। सिर्फ 21 प्रतिशत महिलाएं फिल्म मेकर हैं और केवल 28 प्रतिशत महिला आधारित फिल्में बनती हैं।”
– क्लार्क 2015
“भारत में ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो महिला पत्रकारों ने पिछले दो दशकों में काफी प्रगति की हैं और वे अब सिर्फ फैशन, लाइफस्टाइल और सौंदर्य और मौसम के अलावा खेल, रक्षा, वित, राजनीति जैसे मुद्दों पर बेबाकी से पत्रकारिता कर रही हैं। फिर भी कुछ महिला पत्रकारों का कहना है कि ‘अपनी पुरजोर भागीदारी के बावजूद ज्यादातर मीडिया में उनकी आवाज नहीं सुनी जा रही है। वे भले ही सामाजिक सरोकारों की रिपोर्टिंग करती हैं पर जब उनका खुद का मामला होता है तो वे फिर से हाशिये पर होती है।”
– प्रीति मिश्रा,
हिन्दुस्तान टाइम्स – नेशनल कमीशन आफ वीमेन के अध्ययन से उद्धृत।
यूएन डिक्लेरेशन ऑन द एलिमिनेशन ऑफ डिसकिमिनेशन अगेंस्ट वीमेन में कहा गया कि महिलाओं को समान अधिकार और सामाजिक जीवन के सभी क्षत्रों में महिलाओं की पूर्ण भागीदारी देश के संपूर्ण विकास, संपूर्ण विश्व के कल्याण और शांति के लिए एक जरूरत है।
इसी पृष्ठभूमि के आधार पर इस अध्ययन में यह जानने की कोशिश की गई है कि महिलाओं के विकास और सशक्तिकरण में महिला विशेष हिंदी पत्रिकाएं आखिर किस तरह की भूमिका निभा रही है।
शोध का उददेश्य
उपरोक्त सभी तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में इस शोध का उद्देश्य यह पता लगाना है कि
> महिलाओं के विकास एवं सशक्तिकरण के मुद्दे को आखिर कितना समझ पा रही है महिलाओं की हिंदी पत्रिकाएं।
> क्या ये पत्रिकाएं अपने मध्यमवर्गीय पाठकों के विकास और सशक्तिकरण के प्रयास कर रही हैं।
> यदि ये प्रयास हो रहे हैं तो वे महिलाओं के लिए कितने कारगर साबित हो पा रहे हैं।
शोध विधि
उद्देश्यपूर्ण प्रतिदर्शन का इस्तेमाल कर अगस्त माह के पांच महिला पत्रिकाओं का चयन किया गया।
पत्रिकाएं संपादक
1. होममेकर साधना पाहवा
2. सखी प्रगति गुप्ता
3. फेमिना तान्या चैतन्या
4. वनिता मरियम माम्मन मैथ्यू
5. मेरी सहेली हेमा मालिनी
इन पत्रिकाओं के चयन दो तीन आधारों पर किए गए। इनमें चार पत्रिकाओं की संपादिकाएं महिलाएं है। इस आधार को बनाने की वजह ये है कि आखिर महिलाओं के विकास और जरूरतों को समझने का महिलाओं का दृष्टिाकोण कैसा है और किस हद तक वे इसमें खरी उतरी हैं। इसमें एक ऐसी पत्रिका का भी चयन किया गया है जिसका संपादक पुरुष है। इससे महिला मुद्दों को दोनों दृष्टिकोणों से समझने में मदद मिलती है। एक माह की ही पांच पत्रिकाओं को लेने के उद्देश्य यह था कि आखिर एक समय विशेष में इन पत्रिकाओं ने किन तरह के मुद्दों को अहमियत दी। पांचों पत्रिकाओं का प्रकाशन 1987 से 2009 के बीच हुआ है। पांच में से चार पत्रिकाएं मासिक और एक पाक्षिक है। इनका पाठकवर्ग मुख्य तौर पर मध्यम वर्गीय या उच्च मध्यमवर्गीय हिंदी भाषी महिलाएं हैं।
इस अध्ययन में हमने संपादक और पाठकों के पत्रों का विश्लेषण किया। वास्तव में कोई भी प्रकाशन अपने पाठकों को क्या देना चाहता है, इसे पत्रिका के संपादकीय से काफी हद तक समझने की कोशिश की जा सकती है। और वास्तव में वे पाठकों की जरूरतों के अनुरूप है या नहीं और ये पाठकों की किन तरह की जरूरतों को कितनी पूरी की पाई, इसके लिए यदि हम पाठकों के पत्रों का विश्लेषण कर लें तो एक निष्कर्ष पर पहुंचने में मदद मिलती है। इस गुणात्मक विश्लेषण से इस बात का भी अध्ययन हो पाएगा कि वास्तव में वे महिलाओं का विकास करने और उन्हें सशक्त बनाने की कोशिश में कितना कामयाब हो पा रही हैं।
विश्लेषण
1. होममेकर –
संपादक के पत्र
पंद्रह अगस्त के कारण अगस्त माह के संस्करण में आजादी का मुद्दा उठाया – गया है। सालों की आजादी के बाद भी क्या हमें आज विचारों की आजादी मिल पाई है खासकर महिलाओं को, ये सवाल उठाया गया है। लेकिन आश्वासन ये भी है कि महिलाओं को काफी हद तक आ. जादी मिली है। अब वे घर बाहर दोनों जगह काम संभाल रही हैं। बेटियों को भी सिर्फ पारंपरिक नौकरी ही नहीं बल्कि डांस और फोटोग्राफी जैसे कैरियर चुनने के लिए भी काफी प्रोत्साहित किया जा रहा है। महिलाओं की ऐसी छवि को काफी हद तक परिवार और समाज का सपोर्ट मिलने की बात भी उठाई गई है। आजादी को कुछ इस तरह से परिभाषित किया गया है- ‘समय के साथ बदलना और देश दुनिया को अलग अंदाज से देखना भी आजादी ही है।’
होममेकर के अगस्त संस्करण के इस संपादकीय से एक बात जरूर समझ में आती है कि हम बदलाव के दौर में हैं और इस दौर में संघर्ष के बावजूद परिवार और समाज का काफी हद तक साथ भी मिल रहा है महिलाओं को। विचारों की आजादी की बात यह तय कर देती है कि हम चूंघट करने वाले दौर से काफी आगे निकल आए हैं। इन उपलब्धियों की संख्या को बढ़ाना अपने आप में एक लंबी लड़ाई है फिर भी जो महिलाएं आगे आईं वो औरों के लिए एक मील का पत्थर जरूर साबित होंगी।
पाठक के पत्र
एक पाठक के अनुसार, यह पत्रिका सिर्फ फैशन और सौंदर्य तक ही सीमित नहीं होता बल्कि इसमें परवरिश की भी अच्छी जानकारी होती है। कुछ पाठकों को बालीवुड एक्ट्रेस की पसंद को जानने का मौका मिला। एक्ट्रेस की खूबसूरत फोटो और उसका साक्षात्कार पसंद किया गया। साथ ही बच्चों की परवरिश संबंधी लेखों की सराहना की गई। घरेलू महिलाओं को स्मार्ट होममेकर बनाने में बहुत मदद करते हैं इस पत्रिका के लेख । कहानी और रेसिपी की भी तारीफ की गई। आजकल सिंगल चाइल्ड की समस्याओं के लिए परवरिश की टिप्स दी गई जो एक कामकाजी महिला को काफी मदद करता है। रिलेशनशिप पर छपे लेख पाठिकाओं के लिए मददगार साबित हुए।
इसके अलावा पाठिकाओं ने मंथन सेक्शन को सराहा है, जो गंभीर मुद्दों पर चर्चा करता है। जुलाई अंक के मैरिटल रेप पर छपे लेख जिनमें पतियों की ज्यादतियों की शिकार महिलाओं की समस्याओं को उठाया गया।
2. सखी
संपादक के पत्र
जीवन की सभी उपलब्धियों का उत्सव मनाने के लिए स्वस्थ रहने की बात कही गई है। आज की तेज रफ्तार जिंदगी में अपनी सजगता से इसे कैसे अच्छा जीया जाए, इस विषय के इर्द गिर्द लेखन हुआ है। इसके अलावा खेलों में लड़कियों की भागीदारी, उनकी समस्याएं और मुश्किलों के समाधान सुझाए गए हैं। संपादिका ने अंत में कहा कि ध्यान रहे कि खेल केवल चरित्र का निर्माण ही नहीं करते, वे इसे व्यक्त भी करते है।
पाठकों के पत्र
फैशन, स्वास्थ्य, मनोरंजन, परवरिश, रेसिपी के अलावा यह पाठ. कों को जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने कर प्रेरणा देती है। अंधविश्वास को तोड़ने वाले लेख भी महिलाओं में सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने में मददगार साबित हो रहे हैं। तार्किक विचारधारा अपनाने की शुरूआत वाले लेख भी महिलाओं को पसंद आ रहे हैं। मिसाल के तौर पर किसी सफल महिला के साक्षात्कार से महिलाओं को प्रेरणा मिल रही है। सुनिधि चौहान जैसी सफल महिलाओं के लेख भी लोगों के लिए प्रेरणादायक साबित हो रहे हैं। नारी व्यक्तित्व के हर पहलू को संवारने वाली पत्रिका के रूप में पाठक इसे देख रहे हैं।
3. वनिता
संपादक के पत्र
यह पत्रिका भी अगस्त अंक स्वास्थ्य विशेष अंक है। इसमें दावा किया गया है कि महिलाओं में अपने सेहत, और माता को ठीक रखने के लिए योग और .. चुरोपैथी को लेकर जागरूकता बढ़ी है। स्वास्थ्य पर आधारित इस अंक में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का साक्षात्कार भी लिया गया है जो आपन्न कैरियर के अलावा मन की बातें भी साझा करती हैं। आईएएस टॉपर लड़कियों के साक्षात्कार भी प्रकाशित किए गए हैं जो उनकी सफलता के राज को बताते हैं। बरसात के मौसम की बीमारियों के अलावा खान पान, परवरिश और मनोरंजन पर भी लेख लिखे गए हैं।
पाठकों के पत्र
घरेलू महिलाएं इस पत्रिका के अंकों को अनूठी, बेजोड़ और उचित मार्गदर्शिका मानती हैं। फैशन, स्वास्थ्य, सौंदर्य, व्यंजन और सेक्स संबंधी लेख इसकी उपियोगिता को बढ़ा देते हैं।
सैनिटरी नैपकीन क्रांति की बात भी उठ रही है इन पत्रिकाओं में जो महिलाओं को काफी पसंद आ रहे हैं। लोगों में इस तरह के लेख के माध्यम से इस तरह के टैबू को समाप्त करने की कोशिश की सराहना हो रही हैं। यौन हिंसा के खिलाफ उठाए गए छात्रों के कदम को भी इन पत्रिकाओं में जगह दी जा रही है। भूकंप और सुरक्षा आलेख से भी महिलाओं को काफी जानकारी मिल रही है। अपनी सभ्यता और संस्कृति से भी नई पीढ़ी को जोड़ने की कोशिश कर रही है ये पत्रिका।
4. मेरी सहेली
संपादक के पत्र
बीमारियों से निपटने के लिए योग विशेषांक है अगस्त अंक। रोगों से छुटकारा पाने के लिए योग कैसे अपनाया जाए इस उद्देश्य से इसमें लेखन किया गया है। 21 जून 2015 को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाए जाने के कारण इन पत्रिकाओं में भी महिलाओं को योग के – द्वारा उनकी समस्याओं के समाधान कर स्वस्थ रहने प्रयास कर रही हैं ये पत्रिकाएं। स्वास्थ्य की ओर कदम बढ़ाने के लिए मा. हलाओं को जागरूक बनाने की एक अच्छी पहल के संदेश भर दे रही है। अगस्त अंक के अधिकतर लेख इसी के इर्द गिर्द घूमते है।
पाठकों के पत्र
उपरोक्त सभी पत्रिकाओं की तरह ही पाठकों ने इस पत्रिका के भी फैशन, व्यंजन, कहानियां रिश्तों के अलावा मिलावट के बाजार के प्रति जागरूक करने वाले लेखों को सराहा है। बहुत ही सामयिक सेल्फडीफेंस गैजेट्स जैसे लेखों में भी महिलाओं ने रूचि दिखाई। पाठिकाओं के अनुसार यह पत्रिका जिंदगी जीने का नजरिया बदलती है। किसी भी तरह की समस्या के समाधान के लिए भी पढ़ी जा रही हैं ये पत्रिका | पाठिकाओं के अनुसार पत्रिका की कहानी में लेखनी धर्म के पालन के साथ अंधविश्वास का भी निवारण किया गया है।
5. फेमिना
संपादक के पत्र
रिश्ते निभाने के लिए कोई रामबाण तरकीब नहीं होती। कुछ नियम सभी पर लागू हो सकते हैं लेकिन सूक्ष्मतम स्तर पर हर रिश्ता अपनी तरह का अलग होता है। रिश्तों के तार से बुने गए की सर्वश्रेष्ठ अगस्त अंक में आज के समय में एकल| किताबें, परिवार के समय में भी कुछ संयुक्त| परिवारों की बानगी पेश की है। दोस्ती को भी खुद से चुना गया अनमोल रिश्ता बताकर इस तथ्य को लोगों के अनुभव से जोड़ने की कोशिश की गई है। मां-बेटी के रिश्तों का जिक्र भी इस अंक में किया गया है।
पाठकों के पत्र
पाठकों को इस पत्रिका के विभिन्न अंकों में दी गई फैशन और स्टाइल की जानकारियां उपयोगी लगती हैं। नई-नई किताबों के बारे में दी गई जानकारियां भी बेहद उपयोगी होती हैं। जानवरों के हितों में काम करने वाली संस्था के संघर्ष गाथा को भी इस पत्रिका में जगह दी गई जिसमें पाठकों की रुचि है। घरेलू महिलाएं हों या प्रोफेशनल या अभिनेत्री या फिर लेखिका या पत्रकार, सभी महिलाओं के लिए उपयोगी समझी जा रही है ये पत्रिका। पत्रिका पाठकों को काफी प्रेरणादायक लग रही है। महिलाओं के हितों में काम करने वाले पुरुषों की जानकारी भी पाठकों के लिए बहुत काम की साबित हो रही है। उम्मीद की किरण जैसे स्तंभ लोगों को अपना जीवन नए सिरे से जीने के लिए भी प्रेरित कर रहे हैं। पत्रिका में दी गई पुस्तक समीक्षा भी लोगों को बेहतर किताबों के चयन में काफी लाभदायक साबित हो रही हैं। पत्रिका में महिलाओं के सामर्थ्य को लेकर परिवार और समाज के बदल रही सोच से भी लोगों को अवगत कराया जा रहा है। महिलाओं ने घर और बाहर दोनों जगह की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाकर स्वयं को सबला मानने के लिए मजबूर किया है। इस तथ्य को पुरुष भी स्वीकार कर रहे हैं। हालांकि अब भी ऐसी महिलाओं की संख्या कम ही है।
निष्कर्ष
उपरोक्त सभी पत्रिकाओं के संपादक और पाठकों के पत्रों के विश्लेषण से एब बात स्पष्ट हो जाती है कि इन पत्रिकाओं ने महिलाओं के स्वास्थ्य को काफी अहमियत दी है। अगस्त माह की पांचों पत्रिकाओं में से तीन पत्रिकाएं स्वास्थ्य विशेषांक हैं। महिलाओं में अपने स्वास्थ्य के प्रति काफी जागरूकता भी आई है। रिश्ते, बच्चों के पालन पोषण, फैशन और सौंदर्य के अलावा ये पत्रिकाएं ऐसे विषयों पर भी बेबाक होकर अपनी प्रस्तुति दे रही हैं जो हमारे समाज में आज भी टैबू हैं। मैरिटल रेप, अंधविश्वासों एवं रूढ़ियों को तोड़ने, खेलों में लड़कियों की भागीदारी और उनकी समस्याओं के समाधान ही नहीं, सैनिटरी नैपकिन क्रांति के मुद्दा को भी बखूबी प्रस्तुत कर मध्यमवर्गीय घरेलू महिलाओं में आत्मविश्वास लाने में इन पत्रिकाओं की भूमिका को सराहा जा सकता है। निराश महिलाओं में उम्मीद जगाई है। निष्कर्ष यह कि ये महिला पत्रिकाएं न केवल घरेलू महिलाओं बल्कि कामकाजी महिलाओं की भी जरूरतों को समझ रहीं हैं। एक तरफ परंपरा को भी बखूबी निभाने में मददगार साबित हो रही है तो दूसरी तरफ विचारों की आधुनिकता की दौर में महिलाओं को शामिल करने की प्रेरणा बनकर उन्हें सशक्त भी बना रही हैं।
निभा स्वतंत्र पत्रकार व अतिथि व्याख्याता हैं। अर्चना, सेंट्ल यूनिवर्सिटी आफ जम्मू, में पत्रकारिता विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।