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आखिर क्यों महत्वपूर्ण है पश्चिम बंगाल का चुनाव?

प्रदीप माथुर (अनुवाद : संदीप सिंह)

श्चिम बंगाल उन चार राज्यों में से जहां विधान सभा चुनाव होने वाले हैं। जनसंख्या और क्षेत्रफल के लिहाज से पश्चिम बंगाल देश का न तो सबसे बड़ा राज्य है और न ही सबसे ज्यादा समृद्ध और औद्योगिक राज्य है। देश के जो लगभग 92 प्रतिशत लोग पश्चिम बंगाल के बाहर रहते हैं उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ममता बनर्जी चुनाव में जीतकर आती हैं या नहीं। अगर भाजपा अपने सारे प्रयासों के बाद भी ममता बनर्जी को हरा नहीं पाती है तो भी दिल्ली में नरेंद्र मोदी सरकार पर कोई असर नहीं पड़ेगा। प्रश्न अब यह है कि जब हम पर और केन्द्र सरकार पर पश्चिम बंगाल के चुनाव का कोई असर नहीं होने वाला है तो फिर हम इस चुनाव के बारे में इतने चिंतित क्यों हैं। हमारा सारा ध्यान आज पश्चिम बंगाल चुनाव पर ही क्यों अटका हुआ है क्या इसका कोई समुचित कारण है?

वास्तव में पश्चिम बंगाल का चुनाव इसलिए अहम है क्योंकि वहां मतदाता न सिर्फ किसी राजनैतिक दल को सत्ता देने के लिए वोट कर रहे हैं बल्कि आगे आनेवाले दिनों में देश में सत्ता के स्वरुप पर भी अपनी मोहर लगा रहे हैं। वह यह बात समझे या न समझे कि क्या आगे आनेवाले दिनों मे हमारे देश में बहुसंख्यकवादी मनोवृत्ति की व्यवस्था चलेगी या नहीं चलेगी।

भारत एक विविधताओं से भरा देश है| यहां विभिन्न धर्म, भाषा, संस्कृति, जाति व वर्ग के लोग रहते हैं। हमारे देश में अलग-अलग जगह की अलग-अलग संस्कृति व भाषाएं है और इनमें आपस में काफी असमानताएं भी है। एक अमेरिकन लेखक ने कहा है कि दो हजार की सभ्यता भारत में आज एक ही समय में देखी जा सकती है। हमारे देश के संविधान निर्माता दूरदृष्टा थे, उनको भारत के इतिहास और हमारी विवधताओं की पूरी समझ थी। स्वतंत्रता मिलने पर जब देश का विभाजन हुआ तो बड़े पैमाने पर हिंसा व दंगे हुए जिससे नए आजाद हुए देश की सुरक्षा को लेकर सबको काफी चिंताएं सताने लगी। इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने देश को एक ऐसा संविधान दिया जो कि एकात्मक भी है और संघीय भी है। हमारा संविधान अनेकता में एकता और विविधता में समरुपता को अनोखे रुप से समेटे हुए है।

हमारे संविधान का यह संघीय चरित्र उस समय खतरे में आ जाता है जब केन्द्र में कोई अति महत्वाकांक्षी या निरंकुश प्रवृत्ति वाला शासक सत्ता में आसीन हो जाता है। वर्ष 1975 में यही हुआ, जब श्रीमती इंदिरा गाँधी अपने पुत्र संजय गाँधी के कहने पर देश में इमरजेन्सी लगाने के लिए तैयार हो गईं। आज भी यही स्थिति है, जबकि देश में न तो कोई आपातकाल है और न ही कोई सेंसरसिप लगी हुई है। आज विपक्षी राजनैतिक पार्टियों और देश के उदारवादी जनमानस को यह लगता है कि भारत का संघीय स्वरुप खतरे में है। इसलिए जब ममता बनर्जी अपने चुनाव प्रचार में “बाहरी मानुष” कहती हैं तो वह मतदाताओं को यह बताती हैं कि उनकी बांग्ला संस्कृति को भाजपा की बहुसंख्यकवादी संस्कृति से खतरा है।

जिन चार राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहां पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की कोई सांस्कृतिक पंहुच नहीं है। भाजपा का राजनैतिक दर्शन एक सवर्ण सनातन हिंदू संस्कृति की उपज है जो कि नागपुर में स्थित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की प्रयोगशाला की देन है। इसी राजनैतिक दर्शन को भाजपा संपूर्ण सत्य मानती है और यही इसके चुनाव प्रचार का मुख्य आधार भी है। इसी कारण भाजपा के तमाम नेता और कार्यकर्ता पश्चिम बंगाल में “जय श्री राम” का नारा लगाते हैं। उन्हें यह नहीं मालूम है कि बहुसंख्यक बंगाली हिंदुओं के लिए आस्था के केन्द्र में मां दुर्गा या काली माता हैं, न कि भगवान श्री राम। भगवान श्री राम और संकटमोचन हनुमान बंगाली हिंदुओं के सबसे अधिक पूजे जाने वाले भगवान नहीं हैं। जब किसी बंगाली हिन्दू की मृत्यु होती है तब उसकी श्मशान यात्रा में “हरि बोल” कहा जाता है न कि “राम नाम सत्य है” जैसा कि उत्तर भारत में होता है।

वास्तव में भाजपा की समस्या यह कि जो भाजपा के राजनैतिक दर्शन को नहीं मानता है उसको भाजपा समझ ही नहीं पाती है। भाजपा की सांस्कृतिक विचारधारा को न मानने वाले या उससे मतभेद रखने वाले लोगों को भाजपा संदिग्ध राष्ट्रभक्ति रखने वाला समझती है तथा उन्हें वह मुस्लिम तुष्टिकरण का दोषी भी करार करती है। भाजपा के विचार में देश की एकता व अखंडता तथा संप्रभुता का ख्याल न रखने वाले यह लोग राष्ट्रवादी नहीं हैं।

आज पश्चिम बंगाल के चुनाव में भाजपा के इस संकीर्ण नजरिए को जबरजस्त चुनौती मिल रही है। तमिलनाडु और केरल ऐसे राज्य हैं जहां पर भाजपा का कोई वजूद नहीं है और अपने तमाम प्रयासों के बावजूद भी वह इन राज्यों अपनी जड़े जमाने में असफल रही है। जहां तक असम का सवाल है वहां का जनमानस बांग्ला संस्कृति के अतिक्रमण के डर से सदैव सहमा हुआ रहता है। असम की जनता उसी दल को वोट देती है जो उसे असमी सांस्कृतिक पहचान को अक्षुण बनाए रखने का विश्वास दिलाने में सक्षम हो।

पश्चिम बंगाल का चुनाव मूलतः दो संस्कृतियों का टकराव है। बंगाली अपनी संस्कृति, परंपरा, खानपान, भाषा, संगीत व साहित्य और रहन-सहन आदि पर बहुत गर्व करते हैं। भाजपा का मानना है कि यह महज एक क्षेत्रीय संस्कृति है जिसका देश में कोई स्वतंत्र स्थान नहीं है। यह देश की सार्वभौमिक संस्कृति का अंग मात्र हो सकती है। भाजपा की इस विचारधारा से ममता बनर्जी को यह लगता हैं कि भाजपा पश्चिम बंगाल की संस्कृति को दबाने या कुचलने का प्रयास कर रही है। ममता बनर्जी का एक संघर्षशील राजनैतिक व्यक्तित्व है। उन्होंने 35 वर्षों से जमे मार्क्सवादी शासन को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाकर खुद को स्थापित किया है। लेकिन इस बार ममता बनर्जी दूसरी तरह की चुनावी लड़ाई लड़ रहीं है। यह लड़ाई न सिर्फ राजनैतिक सत्ता के लिए है बल्कि यह सांस्कृतिक एकात्मक विचारधारा के खिलाफ भी है। इस युद्ध में देश के समस्त उदारवादी जनतांत्रिक मूल्यों वाले लोगों का जनमत भी ममता बनर्जी के साथ है। यह तमाम लोग जो इस चुनाव में ममता बनर्जी को नैतिक समर्थन दे रहे हैं वह पश्चिम बंगाल के नहीं है और न ही ममता बनर्जी के प्रशंसक है, लेकिन उनको यह लगता है कि यदि ममता बनर्जी जीतेंगी तो उनके सांस्कृतिक मूल्यों की भी रक्षा होगी और उन्हें अपने प्रगतिशील व धर्मनिरपेक्ष विचारों की अभिव्यक्ति करने पर किसी भी निरंकुशवादी विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा।

प्रदीप माथुर, वरिष्ठ पत्रकार, पत्रकारिता शिक्षक व एलाइन इंडिया न्यूज पोर्टल के मुख्य संपादक हैं।

संदीप सिंह, युवा पत्रकार तथा सिम्स मीडिया स्कूल नैनीताल (SIMS) के सहायक निदेशक हैं। वह एलाइन इंडिया न्यूज पोर्टल से भी जुड़े हुए हैं।

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