AlignIndia
Hindi Politics

चुनाव बंगाल का, दांव पर राजनीति दिल्ली की !

श्रवण गर्ग

देश के पाँच राज्यों में हो रहे विधान सभा चुनावों के ठीक पहले जारी हुए दो सर्वेक्षणों में बताया गया है कि पश्चिम बंगाल की काँटे की लड़ाई में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस वर्ष 2016 के मुक़ाबले कम सीटें प्राप्त करने के बावजूद फिर अपनी सरकार बना लेगी। ए बी पी-सी वोटर के सर्वे में तृणमूल को कुल 294 सीटों में से कम से कम 152 और भाजपा को ज़्यादा से ज़्यादा 120 सीटें बताईं गईं हैं। कांग्रेस-वाम दलों के गठबंधन को 26 सीटें मिल सकतीं हैं। इसी प्रकार टाइम्स नाउ-सी वोटर सर्वे में ममता की पार्टी को 160 और भाजपा को 112 सीटें बताई गईं हैं। यानी दोनों ही सर्वेक्षणों में दोनों दलों को मिल सकने वाली सीटों के अनुमानों में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है।

उक्त सर्वेक्षण इसलिए ग़लत भी साबित हो सकते हैं कि गृह मंत्री अमित शाह के मुताबिक़ भाजपा को दो सौ से अधिक सीटें मिलने वाली हैं और सरकार भी उनकी पार्टी की ही बनेगी। पहली कैबिनेट मीटिंग का पहला निर्णय किस विषय पर होगा यह भी उन्होंने बताया है। गृह मंत्री के इस आत्मविश्वास के पीछे निश्चित ही कोई ठोस कारण भी होना चाहिए। 26 फ़रवरी को निर्वाचन आयोग द्वारा जारी चुनाव-कार्यक्रम में बंगाल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि वहां सबसे ज़्यादा आठ चरणों में मतदान हो रहा है। अपने राज्य में 27 मार्च से प्रारम्भ हुए और 29 अप्रैल तक चलने वाले मतदान कार्यक्रम की घोषणा पर ममता बनर्जी की पहली प्रतिक्रिया यही थी कि तारीख़ें शायद प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की सुविधानुसार तय की गईं हैं। ममता का यह भी मानना था कि इससे भाजपा को देश की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ व्यापक चुनाव प्रचार का लाभ मिलेगा।

कहा जा रहा है कि भाजपा द्वारा तय किए गए ‘जीतने की सम्भावना वाले’ उम्मीदवारों में आधे से अधिक वे हैं जो तृणमूल सहित दूसरे दलों से आए हैं। इसे दूसरे नज़रिए से देखें तो ऐसा होना ममता के लिए सुकून की बात होना चाहिए क्योंकि ये ही लोग अगर चुनाव जीतने के बाद भाजपा में जाते तो बंगाल भी मध्य प्रदेश बन जाता। सीटों को लेकर भाजपा के दावों पर थोड़ा असमंजस इसलिए हो सकता है कि वर्ष 2018 में जब तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़) में चुनाव हुए थे तब पार्टी के सारे अनुमान गड़बड़ा गए थे। अमित शाह ने तब भी दावा किया था कि भाजपा को मध्य प्रदेश में दो सौ सीटें मिलेंगी। तीनों ही राज्यों में तब भाजपा की सरकारें नहीं बन पाईं थीं। तब तो न कोरोना था, न ही लॉक डाउन, न लाखों मज़दूरों का पलायन, न इतनी बेरोज़गारी और महंगाई। कोई ‘दीदी’ भी नहीं थी किसी राज्य में। परंतु अमित शाह ने ही जब 2019 के लोक सभा चुनावों के पहले दावा किया कि भाजपा को तीन सौ से ज़्यादा सीटें मिलेंगी तो वह साबित भी हो गया। ममता का कहना कुछ हद तक सही माना जा सकता है कि बंगाल में 2024 के लोकसभा चुनावों का सेमी फ़ाइनल खेला जा रहा है।

जिस एक आशंका को लेकर कोई भी दो मई की मतगणना के पहले चर्चा नहीं करना चाहता वह यह है कि बंगाल में चुनावों को प्रतिष्ठा का सवाल बना लेने और अपने समस्त संसाधन वहाँ झोंक देने के बावजूद अगर चुनावी सर्वेक्षण सही साबित हो जाते हैं तो देश और बंगाल के लिए उसके राजनीतिक परिणाम क्या होंगे? देश में पंचायती राज की स्थापना के ज़रिए ग्राम स्वराज चाहे गाँव-गाँव तक नहीं पहुँच पाया हो, चुनाव प्रचार के दौरान साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और राजनीतिक वैमनस्य बंगाल के घर-घर तक पहुँचा दिया गया है।

बंगाल के चुनावी परिदृश्य पर नज़दीक से नज़र रखने वाले लोगों के अनुसार, ममता बनर्जी इस प्रकार की आक्रामक मुद्रा में हैं जैसे किसी बाहरी (‘बोहिरा गावटो’) आक्रांताओं से बंगाल की संस्कृति को बचाने की लड़ाई लड़ रही हों। दूसरी ओर, भाजपा जैसे कि बंगाल से ‘विदेशियों’ को बाहर निकालकर एक हिंदू -बहुल राज्य की स्थापना के यज्ञ में जुटी हुई हो। बंगाल में लगभग सत्ताईस प्रतिशत आबादी अल्पसंख्यकों की है। भाजपा अगर सत्ता में आई तो उसका पहला फ़ैसला राज्य में नागरिकता क़ानून को लागू करना होगा। राज्य में भाजपा के पक्ष में हिंदू मतों का ध्रुवीकरण किस सीमा तक हो चुका है इसका अन्दाज़ केवल इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले चुनाव (2016 ) में उसे सिर्फ़ तीन सीटें मिलीं थीं और इस बार सर्वेक्षणों में उसे सवा सौ के क़रीब सीटें मिलने की संभावना जताई जा रही है।

बंगाल चुनावों के सिलसिले में यह सवाल अभी कोने में पड़ा हुआ है कि अगर कांग्रेस और वाम दल दोनों की नाराज़गी भी भाजपा से ही है तो वे ममता के ख़िलाफ़ क्यों लड़ रहे हैं ? दो में से एक सर्वेक्षण में कांग्रेस-वाम गठबंधन को केवल 18 से 26 और दूसरे में 22 सीटें दीं गईं हैं। इन दलों को उम्मीद हो सकती है कि ममता को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में तृण मूल को सशर्त समर्थन की पेशकश कर सत्ता में भागीदारी की जा सकती है। एक अन्य अर्थ यह भी लगाया जा रहा है कि ममता से नाराज़गी रखने वाले सारे वोट बजाय भाजपा को जाने के वाम-कांग्रेस-इंडियन सेक्युलर फ़्रंट को मिल जाएँगे और इस तरह तृणमूल ज़्यादा सुरक्षित हो जाएगी।नंदीग्राम में भी इसीलिए एक वामपंथी उम्मीदवार को खड़ा करके मुक़ाबला त्रिकोणीय बना दिया गया है जिससे कि ममता सुरक्षित हो सकें।

बंगाल चुनावों में इस समय जो कुछ भी चल रहा है उस पर न सिर्फ़ विभिन्न राजनीतिक दल, विपक्षी सरकारें, चार महीनों से आंदोलनरत किसान और तमाम ‘आंदोलनजीवी’ ही अपनी नज़रें टिकाए हुए हैं, वे लोग भी उत्सुकता से देख रहे हैं जो कथित तौर पर भाजपा के अंदर होते हुए भी बाहर जैसे ही हैं। कहना कठिन है कि एनडीए में ऐसे कितने घटक होंगे जिनकी रुचि भाजपा के वर्तमान शीर्ष नेतृत्व को और अधिक मज़बूत होता हुआ देखने में होगी। अंत में : गौर किया जा सकता है कि ममता बनर्जी इतनी डरी हुईं, घबराई हुईं और आशंकित पिछले एक दशक में कभी नहीं देखी गईं। वे अभी तक तो कोलकाता में बैठकर ही दिल्ली को ललकारती रहीं हैं पर अब दिल्ली स्वयं उनके दरवाज़े पर है और चुनौती भी दे रही है।बंगाल में कुछ भी हो सकता है !

श्रवण गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार हैं, जिन्होंने विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कई हिंदी समाचारपत्रों में कार्य किया है।

Related posts

The Fiction of UNSC Permanent Seat Offer to India

Alok Jagdhari

Our Fourth Estate is Our Fifth Column

Alok Jagdhari

Tale of ‘Two Modis’: What The ‘Politician’ and PM Achieved In Leh

Raja Rajeev